उत्तर भारत की सतनामी संत परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी थे ब्रह्मलीन महंथ रामाश्रय दास

प्रखर डेस्क। उत्तर भारत का एक गांव भुड़कुड़ा सतनामी संत परंपरा का लोक तीर्थ है। यहां बूला,गुलाल,भीखा जैसे तत्व ज्ञानी सिद्ध साधक ध्यान की गहराई में उतरकर साधना किए तथा मानवता का संदेश दिए। आठ पहर बत्तीस घरी भरो पियाला प्रेम/यारी कहें विचारि के यही हमारो नेम की परंपरा यहां जीवंत हुई। कालांतर में इस परम्परा से एक महत्त्वपूर्ण नाम जुड़ा जिसे श्री महंथ रामाश्रय दास के रुप में जाना जाता है। उन्होंने ध्यान योग को अपनाकर मन पर विजय प्राप्त किया। वे कहते थे “ध्यान किए क्या होय ,मन को जो नहिं वश करे/मन वश नहिं जो होय, ध्यान सो काहे करै”। चौदह मई 2008 श्री महँथ रामाश्रय दास के ब्रह्मलीन होने की तिथि है।आज ही के दिन सतनामी परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ी श्री महन्त रामाश्रय दास का भौतिक शरीर गोरखपुर के पाली गांव में शांत हुआ था। इसके उपरांत उनके पार्थिव देह को सिद्धपीठ भुड़कुड़ा लाया गया तथा पूर्ववर्ती सद्गुरुओं की समाधि के समीप मठ परिसर में ही समाधि दी गई। डेढ़ दशक के बाद भी एक संत के रुप में उनकी सूक्ष्म उपस्थिति का बोध समाज में निरंतर बना हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा अमर है तो महात्मा (महान+आत्मा)भी अमर हैं। यदि मठ मन्दिर समाज के शक्ति केन्द्र हैं तो श्री महन्थ रामाश्रय दास जैसे संत सज्जन शक्ति पुंज के रुप में इस धरा धाम को आलोकित किए हैं। समाज द्वारा प्रेरणादाई जीवन को विस्मृत नहीं किया जा सकता। उनके द्वारा किया गया लोकोपकार उनके व्यक्तित्व का स्मरण सदैव दिलाता रहता है। महंथ रामाश्रय दास ने ‘सेवा धरम सकल जग जाना ‘ के मर्म को जानकर भुड़कुड़ा जैसे अत्यंत पिछड़े क्षेत्र में चालीस बीघा जमीन एवम् दस हज़ार रुपए दान देकर वर्ष 1972 में उच्च शिक्षा का प्रकल्प खड़ा किया तथा अपने गुरु द्वारा आरंभ किए गए कार्य को आगे बढ़ाया।इस प्रकल्प को चलाने के लिए आरंभिक दिनों में अध्यापकों को आवासीय व्यवस्था एवम् भोजन निःशुल्क उपलब्ध कराया।धीरे धीरे यह यशःकाय महाविद्यालय एक विशिष्ट उच्च शिक्षण संस्थान के रुप में स्थापित हुआ।बीते पचास वर्षों में इस प्रकल्प से बहुतेरे लाभान्वित हुए और आगे भी हो रहे हैं।जिस प्रकार गृहस्थ अपने पुरखों का स्मरण कर श्राद्ध तथा तर्पण करते है उसी प्रकार से समाज के लोग भी प्रेरणादाई जीवन का पुण्य स्मरण कर जन्मजयंती एवम् पुण्य तिथि मनाते हुए अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार संत आध्यात्म का व्यवहारिक रूप हैं । इन्ही की चिन्तन धारा पर आध्यात्मिक चिंतन का स्वरूप आधारित है। संत को शास्त्र का वाचिक ज्ञान हो न हो दर्शन अवश्य होता है।वह आध्यात्म का व्याख्याता भले न हो किंतु आध्यात्म चेता होता है। महंथ रामाश्रय दास जी ने अपने जीवन काल में पदों की रचना नहीं की, शास्त्रों की मीमांसा भी नहीं किया।केवल सत्संग किया और गाया कि “प्रभु जी सब विधि चूक हमारी/कीजै लाज सरन आए की गुन ऐगुन न विचारी “। गाते गाते ही उनका जीवन संदेश बन गया।अमृतकाल में सिद्धपीठ का कण कण आज आध्यात्मिक चेता ब्रह्मलीन महन्थ रामाश्रय दास को श्रद्धा पूर्वक याद कर कृतज्ञता का भाव व्यक्त कर रहा है। उनकी सूक्ष्म उपस्थिति को सादर नमन।