संघ के संग ना होने से भाजपा का हुआ भारी नुकसान!

पत्रिका के लेख के बाद रार की तस्वीर हुई साफ़

प्रखर डेस्क। भाजपा और संघ के बीच खटास की बात अब धीरे-धीरे समाज में भी फैलने लगी है। बता दें कि बीजेपी की उत्तर प्रदेश में करारी हार के बाद भाजपा पर आरोप लग रहे थे कि संघ बीजेपी से काफी पहले से नाराज चल रहा है। लेकिन जब संघ की एक पत्रिका के एक लेख के बाद साफ तौर पर कहा जा सकता है कि बीजेपी और संघ के बीच में कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। 4 जून के परिणाम के बाद चर्चा चल रही थी कि संघ ने उत्तर प्रदेश की अधिकतम सीटों पर प्रत्याशी बदलने के लिए भाजपा से कहा था। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने अपने गुमान में प्रत्याशियों को नहीं बदला और उसका खामियाजा भुगतना पड़ा। वही मणिपुर में हो रही हिंसा को शांत करने में असफलता और चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों के द्वारा उपयोग की गई ‘अभद्र’ भाषा पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का बयान इसी तरफ इशारा कर रहा है कि दोनों संगठनों के बीच सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। इसके ठीक बाद संघ का मुखपत्र मानी जाने वाली एक पत्रिका के लेख में आरोप लगाया गया है कि चुनावों के दौरान भाजपा नेता-कार्यकर्ता आरएसएस नेताओं-कार्यकर्ताओं से सहयोग लेने के लिए नहीं पहुंचे। इसके बाद सियासी गलियारे में खलबली मच गई है। दरअसल, काफी लंबे समय से इस बात के संकेत मिल रहे थे कि दोनों संगठनों के बीच सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। बीजेपी को आरएसएस के बीच खटास का सबसे पहला संकेत तब मिला था जब आरएसएस ने अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने पर आयोजित होने वाले भव्य कार्यक्रमों को स्थगित कर दिया था। संगठन लगभग दो साल से इस बात की योजना बना रहा था कि संघ की स्थापना के सौ साल पूरे होने पर 2025 में पूरे देश में भव्य कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। इन कार्यक्रमों के जरिए संघ को देश के सभी गांवों तक ले जाने का लक्ष्य भी निर्धारित किया गया था। इसके लिए विभिन्न कार्यक्रमों की योजना बनाई जा रही थी। लेकिन अचानक ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अप्रैल में नागपुर में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान यह घोषणा कर दी थी कि संघ अपने जन्मशती के कार्यक्रम को भव्य तरीके से नहीं मनाएगा। उन्होंने कहा कि संघ बेहद सादगीपूर्ण तरीके से सामाजिक परिवर्तन के लिए काम करता है, संघ के स्वयंसेवक यह काम करते रहेंगे। लेकिन संघ की स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने पर कोई भव्य कार्यक्रम नहीं आयोजित किए जाएंगे। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इन तनावों को कभी सतह पर नहीं आने दिया। लेकिन उनके एक बयान की काफी चर्चा हुई थी, जिसमें उन्होंने कह दिया था कि भाजपा अब काफी परिपक्व हो चुकी है और उसे अब आरएसएस के सहयोग की आवश्यकता नहीं है। नड्डा का यह बयान बेहद संतुलित संदर्भों में था, लेकिन इसका आशय यही निकाला गया कि भाजपा-आरएसएस में तनाव ज्यादा है। पार्टी को इसका नुकसान भी उठाना पड़ा। लोकसभा चुनावों के पहले संघ के बेहद वरिष्ठ पदाधिकारियों ने चुनावों को लेकर पार्टी के साथ समन्वय करने की कोशिश की थी। संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी अरुण कुमार ने चुनावों की घोषणा से पूर्व ही गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा के संगठन मंत्री बीएल संतोष के साथ भाजपा के राष्ट्रीय कार्यालय में लगातार पांच दिन तक मैराथन बैठकें की थीं। कहा गया था कि संगठन के शीर्ष नेता देश की एक-एक सीट का गंभीर आकलन कर हर लोकसभा चुनाव के अनुसार अलग रणनीति तैयार कर रहे हैं। इसका उद्देश्य चुनाव में 400 सीटों के असंभव से लक्ष्य को हासिल करना बताया गया था। इसी तरह की बैठकें राज्यों के स्तर पर भी किए गए थे। लेकिन संघ सूत्रों का कहना है कि इस बार भाजपा के कार्यकर्ता संघ के पदाधिकारियों से अपेक्षित सहयोग करने के लिए तैयार नहीं थे। कई सीटों पर भाजपा नेताओं को सब कुछ ठीक न होने की जानकारी भी दी गई थी, लेकिन इस पर समय रहते कोई एक्शन नहीं लिया गया। उलटे जिन उम्मीदवारों के बारे में संघ से नकारात्मक संकेत दिए गए थे, उन्हें भी टिकट पकड़ा दिया गया। पार्टी को इसका चुनावों में भारी नुकसान उठाना पड़ा। वही संघ सूत्रों के अनुसार, लोकसभा चुनावों के पूर्व ही भाजपा नेतृत्व को यूपी में संगठन और सरकार में सब कुछ ठीक न होने की जानकारी दे दी गई थी। चुनाव के बीच भी सरकार और संगठन के आपसी तालमेल के बिगड़ने की जानकारी पार्टी नेतृत्व को दे दी गई थी। लेकिन इसके बाद भी इसे सुधारने की कोशिश नहीं की गई। उलटे भाजपा के कुछ शीर्ष नेताओं के बयानों ने स्थिति को और ज्यादा उलझाने का ही काम किया। केंद्र में भाजपा की सरकार अब सहयोगी दलों के सहारे है। उसे एनडीए के विभिन्न सहयोगी दलों का साथ लेना पड़ रहा है। इससे उसकी निर्भरता बढ़ गई है। इस साल में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं, तो अगले वर्ष दिल्ली-बिहार के चुनावों में भाजपा नेतृत्व की परीक्षा होनी है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ-साथ कम से कम चार-पांच राज्यों में अध्यक्षों का बदलाव भी होना है। यदि ऐसे समय में दोनों संगठनों में आपसी तालमेल बेहतर नहीं रहता है तो भाजपा को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है।